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श्री देव सुमन: टिहरी का अमर शहीद|Shri Dev Suman: The immortal martyr of Tehri| |
श्री देव सुमन: टिहरी का अमर शहीद
"गांव से विचार क्रांति तक: एक बालक
का महापुरुष बनने का सफर"
प्रस्तावना
भारत
का स्वतंत्रता संग्राम अनेक महान नायकों की धरती रहा है,
परंतु कुछ ऐसे वीर सपूत हैं जिन्हें राष्ट्रीय
इतिहास में वह स्थान नहीं मिला, जिसके वे अधिकारी थे। श्री देव सुमन
का नाम ऐसा ही है। एक युवा,
विचारशील, निर्भीक, और
गांधीवादी मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति, जिसने न केवल ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ बल्कि अपनी ही रियासत –
टिहरी रियासत
– के क्रूर प्रशासन के विरुद्ध
आवाज उठाई। उनका जीवन न केवल बलिदान की कहानी है, बल्कि एक वैचारिक आंदोलन
का प्रतीक भी है।
जन्म
और पारिवारिक पृष्ठभूमि
25 मई 1916, गढ़वाल की सुरम्य वादियों में स्थित
जौल गाँव (पट्टी जौनपुर,
टिहरी
गढ़वाल) में
एक साधारण ब्राह्मण परिवार में श्रीदेव सुमन का जन्म हुआ। उनके पिता
बल्देव दत्त उनियाल
धार्मिक प्रवृत्ति के साथ-साथ समाज में सम्मानित
व्यक्ति थे। परिवार आर्थिक दृष्टि से संपन्न नहीं था,
लेकिन संस्कारों और शिक्षा का वातावरण घर में
हमेशा रहा।
छोटे
सुमन का बाल्यकाल पहाड़ की प्राकृतिक गोद में बीता – जहाँ जीवन साधारण था लेकिन
चुनौतियाँ अपार। यह वहीं समय था जब भारत में आज़ादी की माँग धीरे-धीरे जनता के
दिलों में आकार ले रही थी, और
बाल सुमन अनजाने ही इस विचार से आकर्षित हो रहे थे।
शिक्षा
और बौद्धिक जागृति
सुमन
की प्रारंभिक शिक्षा टिहरी में हुई। वे छात्र जीवन से ही मेधावी, अनुशासित और स्वतंत्र विचारों वाले थे। सामान्य
पाठ्यक्रम के साथ-साथ उन्हें भारतीय इतिहास, संस्कृति, और धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन विशेष प्रिय था।
बाद
में उन्होंने उच्च शिक्षा के लिए देहरादून
और फिर लाहौर का रुख किया। यह समय भारतीय राजनीति में हलचल का
था – भगत
सिंह,
नेहरू,
गांधी,
सुभाष चंद्र बोस
जैसे नेताओं के विचार और आंदोलन देशभर में आग की
तरह फैल रहे थे।
लाहौर
में पढ़ाई के दौरान उन्होंने क्रांतिकारी विचारों से साक्षात्कार किया। उनका
संपर्क ऐसे युवाओं से हुआ जो अंग्रेज़ी सत्ता के खिलाफ सशस्त्र क्रांति की बात कर
रहे थे। हालांकि, सुमन
ने गांधी
जी की अहिंसात्मक विचारधारा को अपने जीवन का मार्ग चुना।
गांधीजी
का प्रभाव और विचारधारा की दिशा
महात्मा
गांधी के आदर्शों ने सुमन के मन में एक स्थायी छाप छोड़ी। उन्होंने गांधीजी की
सत्य,
अहिंसा,
सविनय अवज्ञा
और स्वदेशी
जैसे सिद्धांतों को न केवल पढ़ा,
बल्कि उन्हें आत्मसात किया। उन्होंने खादी पहनना
शुरू किया, विदेशी
वस्त्रों का बहिष्कार किया और ‘स्वराज्य’ की भावना को आत्मा में बसा लिया।
“जिस
दिन जनता को अपनी शक्ति का अहसास हो जाएगा, उस दिन कोई तानाशाही जीवित नहीं बचेगी।” – श्रीदेव सुमन
सुमन
जी ने महसूस किया कि टिहरी रियासत केवल भारत से भौगोलिक रूप से जुड़ी नहीं है,
बल्कि उसकी आज़ादी भी भारत की आज़ादी से जुड़ी
होनी चाहिए।
लेखन,
भाषण
और जनजागरण का आरंभ
स्वतंत्रता
संग्राम की एक विशेषता यह थी कि उसमें लेखनी ने भी तलवार से अधिक कार्य किया।
श्रीदेव सुमन ने इस शक्ति को पहचाना और लेखन तथा पत्रकारिता को अपनी आवाज़ बनाया।
उन्होंने
‘जागर’, ‘युगवाणी’,
जैसे पत्रों में लेख लिखे। इन लेखों में वे शोषण
के खिलाफ मुखर थे। उनके लेखों में सत्य की धार और जनता की पीड़ा का सजीव चित्रण
होता था।
वह
गाँव-गाँव जाकर सभा करते, भाषण देते, और
लोगों को जागरूक करते कि “राजा तुम्हारा भगवान नहीं, बल्कि तुम्हारी सेवा करने वाला एक जिम्मेदार होता
है।”
सामाजिक
क्रांति की ओर पहला कदम
टिहरी
रियासत उस समय सत्तावादी, सामंती और क्रूर नीतियों के लिए कुख्यात थी। राजा और दरबारी जनता से
मनमाने कर वसूलते थे, स्वतंत्रता
आंदोलन से जुड़ने वालों पर जुल्म करते थे और विरोध की हर आवाज़ को कुचलने की नीति
अपनाई जाती थी।
देव
सुमन ने इस व्यवस्था के खिलाफ सबसे पहले लोक जागरण
की शुरुआत की। उन्होंने जनता से कहा कि अगर भारत
स्वतंत्र हो सकता है, तो
टिहरी रियासत भी शोषण से मुक्त हो सकती है।
स्मरणीय
प्रसंग
एक
बार उन्होंने एक सार्वजनिक सभा में कहा:
“राजा
की शक्ति जनता की चुप्पी से है। यदि यह चुप्पी टूट गई,
तो सिंहासन हिल जाएगा।”
यह
बात सुनकर दरबारी क्रुद्ध हो उठे। टिहरी प्रशासन को अहसास हुआ कि अब सुमन एक खतरा
बन चुके हैं – एक वैचारिक बम जो पूरे टिहरी को बदल सकता है।
श्री
देव सुमन: टिहरी का अमर शहीद
“टिहरी रियासत की क्रूरता और संघर्ष की शुरुआत”
टिहरी
रियासत का राजनीतिक परिदृश्य
टिहरी
गढ़वाल रियासत ब्रिटिश
राज के समय एक देशी रियासत थी, जिसका
शासक स्वयं को राजा मानता था और शासन में ब्रिटिश संप्रभुता के अधीन रहते हुए जनता
पर दमन करता था। रियासत के राजा नरेन्द्र शाह
थे, जिन्हें ब्रिटिश साम्राज्य ने मान्यता दी थी।
टिहरी
में:
- जनता को किसी भी प्रकार की स्वतंत्रता
प्राप्त नहीं थी,
- प्रजा अपने ही घरों में परायों जैसी थी,
- राजा की बात ही कानून थी,
- विरोध का मतलब था बंदीगृह या उत्पीड़न।
कर
व्यवस्था: शोषण का सबसे बड़ा हथियार
रियासत
की अर्थव्यवस्था पूरी तरह किसानों और मजदूरों के शोषण पर आधारित थी। जनता पर थोपे
गए कर:
- नकद कर (Cash
Taxes)
- अन्न कर (Grain
Tax)
- घोड़ों,
गायों,
लकड़ी
तक पर कर
- राजकार्य (बिना वेतन मजदूरी)
गरीब
किसान एक ओर अंग्रेज़ों से पीड़ित थे और दूसरी ओर अपने ही राजा द्वारा शोषित।
श्रीदेव
सुमन का टिहरी लौटना
लाहौर
और देहरादून में शिक्षा तथा स्वतंत्रता आंदोलनों से गहरे रूप में प्रभावित होकर,
श्रीदेव सुमन टिहरी लौटे। लेकिन वे अब एक सामान्य
युवा नहीं थे — वे विचारों के योद्धा बन चुके थे।
उनके
मन में एक ही लक्ष्य था —
“टिहरी
को भी आज़ाद कराना है।”
प्रजा
मंडल आंदोलन की स्थापना
1938–39 के
दौरान सुमन जी ने प्रजा मंडल आंदोलन की नींव रखी। इसका उद्देश्य था:
- टिहरी की प्रजा को संगठित करना
- जनता को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करना
- रियासत के दमनकारी शासन के खिलाफ शांतिपूर्ण
आंदोलन
- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन से टिहरी को जोड़ना
उन्होंने
गाँव-गाँव जाकर सभाएँ कीं,
घरों में बैठकें कीं,
और पत्र-पत्रिकाओं के ज़रिए आंदोलन की लौ जलाना शुरू
किया।
लेखनी
की तलवार: शब्दों से क्रांति
देव
सुमन ने टिहरी में रहकर लेखन को हथियार बनाया। उन्होंने जनता को उनके अधिकारों की
जानकारी देने के लिए:
- प्रचार-पत्रक बांटे
- कविताएँ लिखीं
- राजा की नीतियों की खुली आलोचना की
- ‘जागर’ और ‘युगवाणी’ पत्रों में क्रांतिकारी
लेख लिखे
उनके
लेखों से जनता के भीतर क्रांति की चेतना फैलने लगी।
प्रशासन
की प्रतिक्रिया और सख्ती
श्री
देव सुमन के प्रभाव से भयभीत होकर टिहरी प्रशासन ने उनके विरुद्ध कठोर कार्रवाई
करने की योजना बनाई।
उन पर
आरोप लगाए गए:
- राज-द्रोह (Sedition)
- जनता को भड़काने का आरोप
- राजा की अवमानना
पहली
गिरफ्तारी (1939)
1939 में उन्हें पहली बार गिरफ्तार किया गया जब वे एक
जनसभा में राजा की नीतियों की आलोचना कर रहे थे। उन्हें टिहरी जेल में रखा गया,
और बिना मुकदमे के कई दिन तक रखा गया।
जेल
में क्या हुआ?
- खाने में कीड़े और गंदगी
- सोने को न चटाई,
न कंबल
- गालियाँ, धमकियाँ, और शारीरिक यातना
- मानसिक तोड़ने के प्रयास
पर
सुमन जी दृढ़ रहे। उन्होंने कहा:
“मैं
राजा का बंदी नहीं, प्रजा
का सेवक हूँ।”
रिहाई
के बाद भी सक्रियता
जेल
से रिहा होने के बाद वे रुके नहीं। अब वे और अधिक सक्रिय हो गए। उन्होंने राजा को
एक खुला पत्र लिखा, जिसमें
कहा गया:
“आपके
सिंहासन की नींव अन्याय और अज्ञान पर है, और यह नींव अब हिल चुकी है।”
ब्रिटिश
शासन और रियासत: मिलीभगत
ब्रिटिश
सरकार ने टिहरी रियासत को एक बफर ज़ोन की तरह इस्तेमाल किया। इसलिए रियासत को खुली
छूट थी कि वह जनता पर जैसा चाहे शासन करे। ब्रिटिश अफसरों को लगता था कि सुमन जैसा
युवक टिहरी की स्थिरता के लिए खतरा है।
इसीलिए
जब सुमन जी ने भारत की स्वतंत्रता की मांगों के साथ टिहरी की आज़ादी को भी जोड़ा,
तो यह बात शासकों को नागवार गुज़री।
विचारधारा
का विस्तार
अब
सुमन जी केवल एक स्थानीय नेता नहीं रह गए थे — वे
राजशाही के विरुद्ध जनमत
तैयार करने वाले विचारक बन चुके थे। उन्होंने रियासत के ज़रिए पूरे भारत की जनता के
सामने एक उदाहरण रखा कि असली स्वतंत्रता तब है जब आम जन भी स्वराज महसूस करे।
राजशाही
के विरुद्ध संघर्ष की शुरुआत और सार्वजनिक चेतना का निर्माण
1930 के
दशक में टिहरी रियासत एक सामंती शासन के अधीन थी जहाँ राजा की मर्जी ही कानून थी।
जनता को ज़मींदारों और अधिकारियों के द्वारा शोषण, कर, जबरदस्ती श्रम (बेगार), और सामाजिक अन्याय का सामना करना पड़ता था।
- शिक्षा और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर
प्रतिबंध था।
- स्थानीय जनता को न्यूनतम अधिकार भी प्राप्त
नहीं थे।
- लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति शासन का
दृष्टिकोण शत्रुतापूर्ण था।
युवावस्था
में वैचारिक परिपक्वता और जागरूकता
देव
सुमन जी ने बनारस में अध्ययन करते हुए भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन,
महात्मा गांधी के विचारों,
और सत्याग्रह की नीति को गहराई से आत्मसात किया।
वहाँ उनके विचारों में स्पष्टता आई:
- उन्हें अहिंसक क्रांति में गहरा विश्वास था।
- टिहरी जैसी पिछड़ी रियासत में लोकतंत्र और
जन अधिकारों की बात करने वाले बहुत कम लोग थे — देव सुमन उनमें अग्रणी बने।
"सुमन संदेश" का प्रकाशन: अभिव्यक्ति की मशाल
1938 में
श्री देव सुमन ने एक हस्तलिखित पत्रिका “सुमन संदेश”
निकाली। इसका उद्देश्य था:
- जनता को रियासत की अन्यायपूर्ण नीतियों से
अवगत कराना।
- जन-चेतना को जागृत करना।
- स्वतंत्रता और समानता के विचारों को
गाँव-गाँव तक पहुँचाना।
विषय-वस्तु
में शामिल थे:
- अन्याय का विरोध,
- स्वराज की आवश्यकता,
- गांधीजी के विचारों का प्रचार,
- जन-संवाद की शुरुआत।
"सुमन
संदेश" टिहरी रियासत की नींद तोड़ने वाली पहली क्रांतिकारी लेखनी थी।
टिहरी
राज्य के अधिकारियों की प्रतिक्रिया
राजा
और राज्य के नौकरशाह "सुमन संदेश" और देव सुमन की गतिविधियों से घबरा
गए:
- सुमन जी को
गुप्तचर
निगरानी में रखा गया।
- पत्रिका पर प्रतिबंध लगाने के प्रयास हुए।
- उन्हें गिरफ्तार करने की धमकियाँ मिलने
लगीं।
लेकिन
सुमन जी डरने वालों में नहीं थे — उनका ध्येय था "न्याय का रास्ता,
चाहे
कीमत कोई भी हो।"
गाँव-गाँव
जाकर आंदोलन की ज्वाला
सुमन
जी ने टिहरी के अलग-अलग गाँवों में जाकर जनसभाएँ, प्रचार-प्रसार
और छोटी बैठकों के माध्यम से लोगों को संगठित
किया:
- वह जनता से कहते थे:
“डरिए
मत,
यह राज्य आपका है, राजा नहीं। आवाज़ उठाइए अन्याय के विरुद्ध।”
- उन्होंने विशेष रूप से युवाओं को संगठित
किया और उन्हें जनसेवक बनाया।
अहिंसा
और सत्याग्रह की ओर बढ़ते कदम
सुमन
जी ने गांधी जी के नमक सत्याग्रह, असहयोग आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन से प्रेरणा लेकर टिहरी में भी स्थानीय सत्याग्रह शुरू करने का निश्चय
किया।
उनका
दृष्टिकोण:
- "हथियारों से नहीं,
विचारों से क्रांति
होगी।"
- "हम खून नहीं बहाएँगे,
बल्कि अन्याय के खिलाफ
शांतिपूर्ण विरोध करेंगे।"
धर्म,
संस्कृति
और राष्ट्रवाद का समन्वय
देव
सुमन ने अपने भाषणों में गढ़वाल की सांस्कृतिक परंपराओं और धर्म की शक्ति को
जनजागरण के माध्यम के रूप में प्रयोग किया।
“यदि
हम अपने गाँव, अपनी
संस्कृति और अपने अधिकारों की रक्षा नहीं कर सके, तो हम अपने पूर्वजों के बलिदानों को व्यर्थ
करेंगे।”
एक
नेता का उदय
इस
चरण में देव सुमन केवल एक युवा नहीं, बल्कि एक जननेता बन चुके थे।
- उनके अनुयायी उन्हें
"गढ़वाल का गांधी"
कहने लगे।
- हर वर्ग – किसान,
मजदूर,
युवा,
महिलाएँ – उनके विचारों
से जुड़ने लगे।
यह
रहा भाग 4:
“श्रीदेव
सुमन का जेल जीवन और आत्मबलिदान” — जो उनके जीवन का सबसे निर्णायक और प्रेरणादायक
चरण रहा। इसमें हम विस्तार से जानेंगे कि कैसे उनका संघर्ष अपने चरम पर पहुँचा और
कैसे उन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर उत्तराखंड में स्वतंत्रता और सामाजिक
चेतना की मशाल प्रज्ज्वलित की।
श्रीदेव
सुमन का जेल जीवन और आत्मबलिदान
गिरफ्तारी
की पृष्ठभूमि
1938 से 1943
के मध्य टिहरी राज्य की तानाशाही और सामंती
व्यवस्था के विरोध में श्रीदेव सुमन लगातार जनजागरण कर रहे थे। उन्होंने जनता को
संगठित कर राजशाही के विरुद्ध आवाज़ उठाई। वे
गाँधीवादी अहिंसात्मक आंदोलन
के प्रबल समर्थक थे। उनकी बढ़ती लोकप्रियता और
प्रभाव से टिहरी नरेश घबरा गए।
- सुमन जी को
30
दिसंबर
1943 को गिरफ्तार कर लिया गया।
- उन पर आरोप था कि वे प्रजा को राजा के
विरुद्ध भड़का रहे हैं और व्यवस्था को चुनौती दे रहे हैं।
जेल
में अमानवीय अत्याचार
उन्हें
टिहरी राज्य की जेल में कैद किया गया, जहाँ उनके साथ अभूतपूर्व अमानवीयता की गई:
- उन्हें सीलन भरे अंधेरे,
गंदे और संकीर्ण कोठरी
में बंद किया गया।
- भोजन में
कीड़े
मिले चावल और सड़ी रोटियाँ दी जाती थीं।
- उन्हें
पानी
तक नहीं दिया जाता, कई बार
गोबर
मिला खाना जबरदस्ती खिलाने की कोशिश की गई।
- पत्र लिखने, किताबें पढ़ने,
और बाहरी संपर्क की
अनुमति नहीं दी गई।
उनके
शरीर को तोड़ने के लिए उन्हें लगातार मानसिक और शारीरिक यातनाएँ दी गईं।
भूख
हड़ताल की शुरुआत
इस
अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ उन्होंने 3
मई 1944
से अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल
शुरू कर दी।
- उनका एक ही उद्देश्य था — या तो
राजा
अन्याय बंद करे, या वे प्राण त्याग देंगे।
- उन्होंने बापू के सिद्धांत को जीवन में उतारते हुए कहा:"मरना स्वीकार है, पर अन्याय के सामने झुकना नहीं।"
शारीरिक
स्थिति और प्रताड़ना
भूख
हड़ताल के 20वें
दिन बाद उनका शरीर कमजोर होने लगा:
- 30वें दिन पर वे बोल नहीं पा रहे थे।
- 40वें दिन उन्हें बिस्तर से उठना भी कठिन हो
गया।
- 60वें दिन शरीर केवल हड्डियों का ढाँचा रह
गया।
इसके
बावजूद राजशाही ने कोई सुनवाई नहीं की। उनके समर्पण, धैर्य और दृढ़ निश्चय ने जेल अधिकारियों तक को
झकझोर दिया।
बलिदान:
25
जुलाई
1944
लगभग
84
दिनों
की भूख हड़ताल के
बाद,
25 जुलाई
1944
को श्रीदेव सुमन ने टिहरी की जेल में अंतिम साँस
ली।
- उनका शरीर इतना दुर्बल हो चुका था कि आत्मा
स्वयं शरीर से विदा हो गई।
- जेल प्रशासन ने उनके शव को
चुपचाप
रात के अंधेरे में भगीरथी नदी में बहा दिया,
ताकि जनता में आक्रोश न
फैले।
बलिदान
की प्रतिक्रिया
उनकी
मृत्यु की खबर जंगल में आग की तरह फैली:
- टिहरी, श्रीनगर, ऋषिकेश, देहरादून, चंबा और जौनसार तक विरोध प्रदर्शन हुए।
- जनता ने नारा लगाया:“श्रीदेव सुमन अमर रहें!”“राजशाही हटाओ, जनतंत्र लाओ!”
- सुमन के बलिदान ने टिहरी रियासत की नींव
हिला दी। यह बलिदान टिहरी के लोकतांत्रिक आंदोलन की चिंगारी
बन गया।
सुमन:
उत्तराखंड का शहीद-ए-आज़म
- श्रीदेव सुमन को आज
“उत्तराखंड का भगत सिंह”,
“लोकनायक”,
और
“बलिदानी सपूत”
कहा जाता है।
- उन्होंने एक अकेले इंसान के रूप में पूरा
सामंतशाही तंत्र हिला दिया।
- उनका जीवन दिखाता है कि सत्य,
अहिंसा और आत्मबल के
आगे कोई भी सत्ता टिक नहीं सकती।
अंतिम
संदेश
मरने
से पहले उन्होंने लिखा था (अनुमानित पंक्तियाँ):
“मैं
मर रहा हूँ, पर
मेरी आत्मा इस भूमि में न्याय के बीज बो रही है। जब ये बीज फूटेंगे,
तब इस धरती पर जनतंत्र का सूर्य उगेगा।”
निष्कर्ष
श्रीदेव
सुमन का जेल जीवन और बलिदान केवल एक ऐतिहासिक घटना नहीं,
बल्कि एक आध्यात्मिक, नैतिक और राजनीतिक प्रकाश स्तंभ
है। उन्होंने अपने शरीर को तपाकर उस ध्वज को
उठाया,
जिसे आज उत्तराखंड में लोकतंत्र की नींव माना
जाता है।
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