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हरगोविंद पंत (19 मई 1885 - 18 मई 1957)|उत्तराखंड के महान व्यक्तित्व|Hargovind Pant (19 May 1885 – 18 May 1957) |Great personalities of Uttarakhand|

 

 |उत्तराखंड के महान व्यक्तित्व|Hargovind Pant (19 May 1885 – 18 May 1957) |Great personalities of Uttarakhand|

हरगोविंद पंत (19 मई 1885 - 18 मई 1957) उत्तराखंड के एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी, सामाजिक सुधारक और राजनेता थे। उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान दिया और कुमाऊं क्षेत्र में सामाजिक जागरूकता और सुधारों के लिए कार्य किया। नीचे उनके जीवन, योगदान और प्रभाव की संपूर्ण जानकारी दी गई है:

 

 जीवन और प्रारंभिक पृष्ठभूमि

- जन्म और परिवार: हरगोविंद पंत का जन्म 19 मई 1885 को उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के चितई गांव में हुआ था। उस समय यह क्षेत्र संयुक्त प्रांत (आधुनिक उत्तर प्रदेश) का हिस्सा था। वे एक ब्राह्मण परिवार से थे, उनके माता-पिता आनंदी देवी और पंडित धर्मानंद पंत थे। हरगोविंद का जन्म ऐसे समय हुआ जब भारतीय राष्ट्रीयता का भाव शिक्षित भारतीयों में जागृत हो रहा था, जो स्वतंत्रता संग्राम के लिए एक मजबूत आधार बना।

- शिक्षा: हरगोविंद पंत ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अल्मोड़ा के सरकारी कॉलेज से प्राप्त की, जहां उन्होंने 1905 में इंटरमीडिएट की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इसके बाद उन्होंने इलाहाबाद के म्योर सेंट्रल कॉलेज से स्नातक की डिग्री हासिल की और 1909 में इलाहाबाद के स्कूल ऑफ लॉ से एलएलबी (कानून की डिग्री) प्राप्त की।

 

 कैरियर और सामाजिक योगदान

- वकालत और सार्वजनिक जीवन: 1910 में हरगोविंद पंत ने वकालत शुरू की और कुमाऊं क्षेत्र में सार्वजनिक जीवन में सक्रिय रूप से भाग लेना शुरू किया। उनकी कानूनी पृष्ठभूमि ने उन्हें सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों को समझने और उनसे निपटने में मदद की।

- सामाजिक सुधार: हरगोविंद पंत ने कुमाऊं क्षेत्र में प्रचलित सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाई। 1928 में बागेश्वर में उन्होंने स्वयं हल चलाकर कुलीन ब्राह्मणों में प्रचलित "हल न चलाने" की प्रथा को तोड़ा। यह कदम सामाजिक समानता और रूढ़ियों को तोड़ने की दिशा में एक बड़ा प्रयास था।

- कुमाऊं परिषद की स्थापना: 1915 में हरगोविंद पंत ने कुमाऊं परिषद की स्थापना की, जो एक राजनीतिक संगठन था। इस संगठन का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश शासन के "बेगार सिस्टम" (जबरन श्रम) के खिलाफ लड़ना था। बेगार प्रथा के तहत स्थानीय लोगों को बिना मजदूरी के ब्रिटिश अधिकारियों के लिए काम करना पड़ता था। कुमाऊं परिषद ने इस प्रथा के खिलाफ आंदोलन चलाया और इसे समाप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

 

 स्वतंत्रता संग्राम में योगदान

- राष्ट्रीय आंदोलन में भागीदारी: हरगोविंद पंत ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लिया। वे अल्मोड़ा कांग्रेस कमेटी के प्रमुख सदस्य थे और इसे "अल्मोड़ा कांग्रेस की रीढ़" कहा जाता था। उन्होंने कई आंदोलनों में हिस्सा लिया, जिसके कारण उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा।

  - 1930 में नमक सत्याग्रह के दौरान उन्होंने उत्तराखंड में इस आंदोलन को संगठित किया और ब्रिटिश शासन के खिलाफ प्रदर्शन किए। इस दौरान उन्हें गिरफ्तार किया गया।

  - 1932 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में भी उनकी सक्रिय भागीदारी रही।

  - 1940 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उन्होंने उत्तराखंड में इस आंदोलन को नेतृत्व प्रदान किया और फिर से जेल गए।

- नेतृत्व और प्रभाव: हरगोविंद पंत ने कुमाऊं क्षेत्र में राष्ट्रीय चेतना को जगाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके नेतृत्व में कुमाऊं परिषद ने न केवल स्वतंत्रता संग्राम को बल दिया, बल्कि स्थानीय लोगों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक भी किया।

 

 राजनीतिक जीवन

- संविधान सभा में सदस्यता: स्वतंत्रता के बाद हरगोविंद पंत संविधान सभा के सदस्य बने। उन्होंने संयुक्त प्रांत के पहाड़ी जिलों (विशेष रूप से कुमाऊं और गढ़वाल) के हितों का प्रतिनिधित्व किया। संविधान सभा में उन्होंने पहाड़ी क्षेत्रों की समस्याओं, जैसे सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी, को राष्ट्रीय मंच पर उठाया।

- संयुक्त प्रांत विधानसभा में भूमिका: 4 जनवरी 1951 को हरगोविंद पंत संयुक्त प्रांत विधानसभा के उपाध्यक्ष (डिप्टी स्पीकर) चुने गए। इस पद पर रहते हुए उन्होंने विधायी प्रक्रियाओं में महत्वपूर्ण योगदान दिया और पहाड़ी क्षेत्रों के विकास के लिए आवाज उठाई।

- स्थानीय मुद्दों पर ध्यान: हरगोविंद पंत ने हमेशा कुमाऊं और गढ़वाल के लोगों की समस्याओं को प्राथमिकता दी। उन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी ढांचे के विकास के लिए कई योजनाओं को लागू करने में मदद की।

 

 व्यक्तिगत जीवन और मूल्य

- सादा जीवन: हरगोविंद पंत एक सादा जीवन जीने वाले व्यक्ति थे। वे गांधीवादी सिद्धांतों से प्रभावित थे और सादगी, स्वदेशी, और अहिंसा में विश्वास रखते थे।

- सामाजिक समानता में विश्वास: उन्होंने जातिगत भेदभाव और रूढ़ियों को तोड़ने के लिए कई कदम उठाए। हल चलाने की घटना इसका एक प्रमुख उदाहरण है, जिसने कुमाऊं क्षेत्र में सामाजिक सुधार की दिशा में एक नई शुरुआत की।

 

 निधन

- हरगोविंद पंत का निधन 18 मई 1957 को हुआ। वे अपने अंतिम समय तक सामाजिक और राजनीतिक कार्यों में सक्रिय रहे। उनके निधन से उत्तराखंड के स्वतंत्रता संग्राम और सामाजिक सुधार आंदोलन को एक बड़ा झटका लगा।

 

 सांस्कृतिक प्रभाव और विरासत

- स्वतंत्रता संग्राम में योगदान: हरगोविंद पंत को उत्तराखंड में स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख नेता के रूप में याद किया जाता है। उनके द्वारा स्थापित कुमाऊं परिषद ने न केवल स्वतंत्रता संग्राम में योगदान दिया, बल्कि उत्तराखंड के लोगों में आत्मसम्मान और जागरूकता भी जगाई।

- सामाजिक सुधार: हल चलाने की घटना और बेगार प्रथा के खिलाफ उनके आंदोलन ने कुमाऊं क्षेत्र में सामाजिक समानता और जागरूकता को बढ़ावा दिया। उनकी ये पहल आज भी प्रेरणा का स्रोत हैं।

- राजनीतिक विरासत: संविधान सभा और संयुक्त प्रांत विधानसभा में उनकी भूमिका ने उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों को राष्ट्रीय मंच पर पहचान दिलाई। उनके प्रयासों ने क्षेत्र के विकास की नींव रखी।

- स्मृति: हरगोविंद पंत को उत्तराखंड में एक महान स्वतंत्रता सेनानी और सामाजिक सुधारक के रूप में सम्मान दिया जाता है। उनके नाम पर कई स्थानीय संस्थानों और कार्यक्रमों का नामकरण किया गया है।

 

 चुनौतियां और आलोचनाएं

- सीमित संसाधन: हरगोविंद पंत ने उस समय कार्य किया जब कुमाऊं क्षेत्र में संसाधनों की भारी कमी थी। सड़कों, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव उनके आंदोलनों को संगठित करने में एक बड़ी चुनौती था।

- ब्रिटिश दमन: स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा, जिसने उनके स्वास्थ्य पर असर डाला। ब्रिटिश शासन ने उनके आंदोलनों को दबाने की कोशिश की, लेकिन वे अपने लक्ष्य से कभी पीछे नहीं हटे।

 

 सारांश

हरगोविंद पंत उत्तराखंड के एक महान स्वतंत्रता सेनानी, सामाजिक सुधारक और राजनेता थे। 19 मई 1885 को अल्मोड़ा के चितई गांव में जन्मे पंत ने कुमाऊं परिषद की स्थापना कर बेगार प्रथा के खिलाफ आंदोलन चलाया और स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान दिया। वे 1930, 1932 और 1940 में जेल गए। सामाजिक सुधार के लिए उन्होंने 1928 में हल चलाकर ब्राह्मणों की रूढ़ियों को तोड़ा। संविधान सभा के सदस्य और संयुक्त प्रांत विधानसभा के उपाध्यक्ष के रूप में उन्होंने पहाड़ी क्षेत्रों के हितों को उठाया। उनका निधन 18 मई 1957 को हुआ। उनकी विरासत आज भी उत्तराखंड में प्रेरणा का स्रोत है।

 




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