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कुमाऊं रेजिमेंट के बारे में संपूर्ण जानकारी | Complete information about Kumaon Regiment. |
कुमाऊं रेजिमेंट भारतीय सेना की एक प्रतिष्ठित पैदल सेना रेजिमेंट है, जो अपनी वीरता, अनुशासन और युद्ध कौशल के लिए जानी जाती है। यह रेजिमेंट मुख्य रूप से उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों से सैनिकों की भर्ती करती है। नीचे कुमाऊं रेजिमेंट के इतिहास, संरचना, योगदान और महत्व की संपूर्ण जानकारी दी गई है:
इतिहास
- स्थापना: कुमाऊं रेजिमेंट की स्थापना
की जड़ें 1813 तक जाती हैं, जब ब्रिटिश भारतीय सेना ने "हैदराबाद कंटिंजेंट" के रूप में
एक इकाई बनाई थी। 1854 में इसे 19वीं हैदराबाद रेजिमेंट के रूप में पुनर्गठित किया गया। 1922 में यह कुमाऊं राइफल्स बन गई, और स्वतंत्रता के बाद 1948 में इसे आधिकारिक रूप से कुमाऊं रेजिमेंट का नाम दिया गया।
- प्रारंभिक भूमिका: 1815 में गोरखा युद्ध के दौरान कुमाऊं क्षेत्र के
सैनिकों ने ब्रिटिश सेना के साथ मिलकर लड़ाई लड़ी। उनकी वीरता से प्रभावित होकर
ब्रिटिश ने इस क्षेत्र से सैनिकों की भर्ती शुरू की। 1850 में नैनीताल में पहली कुमाऊं बटालियन की स्थापना हुई।
- स्वतंत्रता के बाद: 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद, कुमाऊं रेजिमेंट को भारतीय सेना में शामिल किया
गया। इस रेजिमेंट ने भारत के सभी प्रमुख युद्धों में हिस्सा लिया और अपनी वीरता का
परचम लहराया।
संरचना और प्रशिक्षण
- रेजिमेंटल सेंटर: कुमाऊं रेजिमेंट का
मुख्य प्रशिक्षण केंद्र रानीखेत, उत्तराखंड
में स्थित है। इसे "कुमाऊं रेजिमेंट सेंटर" (KRC) कहा जाता है। यह केंद्र सैनिकों को प्रशिक्षण, अनुशासन और युद्ध कौशल सिखाने का प्रमुख स्थान है।
- बटालियन: कुमाऊं रेजिमेंट में
वर्तमान में 20 से अधिक बटालियन हैं, जिनमें पैदल सेना, राष्ट्रीय राइफल्स (RR), और
टेरीटोरियल आर्मी (TA) की इकाइयां शामिल हैं। इस रेजिमेंट
ने 1971 में कुमाऊं स्काउट्स और 1994 में कुमाऊं रेजिमेंट इको फोर्स की स्थापना की।
- भर्ती: रेजिमेंट मुख्य रूप से कुमाऊं
क्षेत्र (अल्मोड़ा, नैनीताल, पिथौरागढ़, बागेश्वर, चंपावत, और ऊधम सिंह नगर) और उत्तर प्रदेश के
कुछ हिस्सों से सैनिकों की भर्ती करती है। यह रेजिमेंट कुमाऊंनी, गढ़वाली, और
डोगरा समुदायों से सैनिकों को शामिल करती है।
प्रमुख युद्ध और योगदान
कुमाऊं रेजिमेंट ने भारतीय सेना के
लिए कई महत्वपूर्ण युद्धों में भाग लिया और अपनी वीरता का परचम लहराया। इस
रेजिमेंट के सैनिकों ने 10 परमवीर
चक्र, 46 अशोक चक्र, और 405 सेना मेडल सहित कई सम्मान प्राप्त
किए हैं।
1. प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918):
- कुमाऊं
रेजिमेंट की बटालियनों ने फ्रांस, मेसोपोटामिया,
और पालेस्ताइन में लड़ाई लड़ी। 1915 में न्यूवे शापेल की लड़ाई में लांस नायक गब्बर
सिंह नेगी को उनकी वीरता के लिए विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया।
2. द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945):
- रेजिमेंट ने बर्मा, मलाया, और उत्तरी अफ्रीका में जापानी और जर्मन सेनाओं के खिलाफ लड़ाई लड़ी। मेजर सोमनाथ शर्मा ने बर्मा में अराकन अभियान में भाग लिया और "मेन्शंड इन डिस्पैचेस" सम्मान प्राप्त किया।
3. 1947-48 भारत-पाक युद्ध:
- इस युद्ध में कुमाऊं रेजिमेंट की चौथी बटालियन ने श्रीनगर की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मेजर सोमनाथ शर्मा ने 3 नवंबर 1947 को बडगाम में 700 पाकिस्तानी घुसपैठियों से लड़ते हुए श्रीनगर हवाई अड्डे को बचाया और शहीद हो गए। उन्हें मरणोपरांत भारत का पहला परमवीर चक्र दिया गया।
4. 1962 भारत-चीन युद्ध:
- रेजिमेंट की चौथी बटालियन ने वालोंग में चीनी सेना के खिलाफ लड़ाई लड़ी। राइफलमैन जसवंत सिंह रावत ने अरुणाचल प्रदेश के नूरानांग में 72 घंटे तक अकेले चीनी सेना को रोके रखा और शहीद हो गए। उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया।
5. 1965 और 1971 के भारत-पाक युद्ध:
- 1965 में
रेजिमेंट ने जम्मू-कश्मीर और पंजाब में पाकिस्तानी सेना के खिलाफ लड़ाई लड़ी। 1971
के युद्ध में इसने बांग्लादेश की मुक्ति में
महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मेजर पी.के. चटर्जी और कैप्टन जी.एस. सलारिया को उनकी
वीरता के लिए परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।
6. कारगिल युद्ध (1999):
- कुमाऊं
रेजिमेंट की 13वीं बटालियन ने कारगिल युद्ध में
हिस्सा लिया। राइफलमैन संजय कुमार ने पॉइंट 4875 पर दुश्मन के बंकरों को नष्ट कर अपनी वीरता दिखाई और परमवीर चक्र से
सम्मानित हुए।
7. आतंकवाद विरोधी अभियान:
- रेजिमेंट
की कई बटालियनों ने जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर भारत में आतंकवाद विरोधी अभियानों
में भाग लिया। राष्ट्रीय राइफल्स की इकाइयों ने इस क्षेत्र में शांति स्थापना में
योगदान दिया।
मूल्य और परंपराएं
- युद्ध घोष: कुमाऊं रेजिमेंट का युद्ध
घोष "जय महाकाली, आयो गोरखाली" है, जो गोरखा सैनिकों की परंपरा से लिया गया है। यह
घोषणा सैनिकों में जोश और साहस भरती है।
- संस्कृति: रेजिमेंट में कुमाऊं और
गढ़वाल की सांस्कृतिक परंपराएं जीवित हैं। सैनिक नंदा देवी की पूजा करते हैं,
और रेजिमेंटल सेंटर में नंदा देवी मंदिर है। नंदा
देवी राजजात यात्रा में रेजिमेंट के सैनिक हिस्सा लेते हैं।
- अनुशासन और एकता: कुमाऊं रेजिमेंट
अपनी एकता और अनुशासन के लिए प्रसिद्ध है। सैनिकों में भाईचारा और आपसी विश्वास इस
रेजिमेंट की ताकत है।
प्रमुख सम्मान और पुरस्कार
- कुमाऊं रेजिमेंट ने अब तक 10 परमवीर चक्र, 2 अशोक चक्र, 16 महावीर
चक्र, 46 कीर्ति चक्र, 405 सेना मेडल, और कई अन्य सम्मान प्राप्त किए हैं। यह रेजिमेंट सबसे अधिक सम्मानित
रेजिमेंटों में से एक है।
- परमवीर चक्र विजेता:
- मेजर सोमनाथ शर्मा (1947)
- राइफलमैन जसवंत सिंह रावत (1962)
- कैप्टन जी.एस. सलारिया (1961,
कांगो में संयुक्त राष्ट्र मिशन)
- राइफलमैन संजय कुमार (1999, कारगिल)
सांस्कृतिक प्रभाव और विरासत
- उत्तराखंड से संबंध: कुमाऊं रेजिमेंट
उत्तराखंड की सैन्य परंपरा का प्रतीक है। इस रेजिमेंट ने कुमाऊं और गढ़वाल के
युवाओं को सेना में भर्ती होने के लिए प्रेरित किया है। रानीखेत में रेजिमेंटल
सेंटर स्थानीय समुदाय के लिए गर्व का स्रोत है।
- राष्ट्रीय सुरक्षा में योगदान:
कुमाऊं रेजिमेंट ने भारत की संप्रभुता और एकता की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका
निभाई है। इसकी बटालियनों ने हिमालयी क्षेत्रों में कठिन परिस्थितियों में भी अपनी
वीरता दिखाई है।
- प्रेरणा का स्रोत: रेजिमेंट के
सैनिकों की कहानियां, जैसे मेजर सोमनाथ शर्मा और राइफलमैन
जसवंत सिंह रावत की वीरता, देश के
युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।
वर्तमान स्थिति
- कुमाऊं रेजिमेंट आज भी भारतीय सेना
का एक अभिन्न अंग है। इसकी बटालियनें भारत की सीमाओं की रक्षा में तैनात हैं,
और रेजिमेंट आतंकवाद विरोधी अभियानों में सक्रिय
है। रेजिमेंटल सेंटर रानीखेत में हर साल भर्ती रैलियां आयोजित की जाती हैं,
जिसमें हजारों युवा भाग लेते हैं।
सारांश
कुमाऊं रेजिमेंट भारतीय सेना की एक
ऐतिहासिक और सम्मानित रेजिमेंट है, जिसकी
स्थापना की जड़ें 1813 तक जाती हैं। इसका मुख्य केंद्र
रानीखेत, उत्तराखंड में है, और यह कुमाऊं, गढ़वाल, और डोगरा समुदायों से सैनिकों की
भर्ती करती है। रेजिमेंट ने प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध, 1947-48, 1962,
1965, 1971, और 1999 के कारगिल युद्ध में वीरता दिखाई। इसने 10 परमवीर चक्र सहित कई सम्मान प्राप्त किए हैं। मेजर सोमनाथ शर्मा,
राइफलमैन जसवंत सिंह रावत, और राइफलमैन संजय कुमार इसके प्रमुख नायक हैं। इसका युद्ध घोष
"जय महाकाली, आयो गोरखाली" है। यह रेजिमेंट
उत्तराखंड की सैन्य परंपरा और राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रतीक है।
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