मेजर सोमनाथ शर्मा (31 जनवरी 1923 - 3 नवंबर 1947)|Major Somnath Sharma (31 January 1923 – 3 November 1947)
मेजर सोमनाथ शर्मा (31 जनवरी 1923 - 3 नवंबर 1947) भारतीय
सेना के पहले परमवीर चक्र विजेता थे, जिन्होंने
1947 के भारत-पाक युद्ध में अदम्य साहस और
बलिदान का परिचय दिया। वे कुमाऊं रेजिमेंट की चौथी बटालियन की डेल्टा कंपनी के
कमांडर थे और कश्मीर के बडगाम में पाकिस्तानी घुसपैठियों से लड़ते हुए शहीद हुए।
उनकी वीरता ने श्रीनगर हवाई अड्डे को दुश्मनों के कब्जे से बचाया। नीचे उनके जीवन
और योगदान की संपूर्ण जानकारी दी गई है:
जीवन और प्रारंभिक पृष्ठभूमि
- जन्म और परिवार: सोमनाथ शर्मा का
जन्म 31 जनवरी 1923 को हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के दध गांव में एक डोगरा ब्राह्मण
परिवार में हुआ था, जो उस समय ब्रिटिश भारत के पंजाब
प्रांत का हिस्सा था। उनके पिता मेजर जनरल अमरनाथ शर्मा भारतीय सेना में डॉक्टर थे
और आर्मी मेडिकल सर्विस के डायरेक्टर जनरल के पद से सेवानिवृत्त हुए। उनकी माता का
नाम सरस्वती देवी था। सोमनाथ का परिवार सैन्य परंपरा से गहराई से जुड़ा था। उनके
छोटे भाई लेफ्टिनेंट जनरल सुरिंदर नाथ शर्मा और जनरल विश्वनाथ शर्मा भारतीय सेना
में उच्च पदों पर रहे, जबकि उनकी बहन मेजर कमला तिवारी भी
सेना में चिकित्सक थीं। उनके मामा लेफ्टिनेंट किशनदत्त वासुदेव 1942 में मलाया में जापानियों से लड़ते हुए शहीद हुए
थे, जिनसे सोमनाथ गहरे प्रभावित थे।
- शिक्षा: सोमनाथ की प्रारंभिक शिक्षा
उनके पिता की विभिन्न पोस्टिंग स्थानों पर हुई। बाद में उन्होंने नैनीताल के
शेरवुड कॉलेज में पढ़ाई की। इसके बाद उन्होंने देहरादून के प्रिंस ऑफ वेल्स रॉयल
मिलिट्री कॉलेज में दाखिला लिया और फिर ब्रिटेन के रॉयल मिलिट्री कॉलेज, सैंडहर्स्ट में सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त किया।
बचपन से ही वे भगवद गीता की शिक्षाओं से प्रभावित थे, जो उनके दादा ने उन्हें सिखाई थीं। वे खेलकूद, विशेष रूप से हॉकी और एथलेटिक्स में भी रुचि रखते थे।
सैन्य कैरियर
- सेना में प्रवेश: 22 फरवरी 1942 को सोमनाथ शर्मा ने ब्रिटिश भारतीय सेना की 19वीं हैदराबाद रेजिमेंट की आठवीं बटालियन में कमीशंड ऑफिसर के रूप में
प्रवेश किया, जो बाद में कुमाऊं रेजिमेंट की चौथी
बटालियन बनी। उनकी पहली पोस्टिंग द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हुई, जहां उन्हें बर्मा में अराकन अभियान में जापानी
सेना के खिलाफ लड़ने का मौका मिला। इस अभियान में उनकी वीरता के लिए उन्हें
"मेन्शंड इन डिस्पैचेस" सम्मान मिला। उन्होंने उस समय कर्नल के.एस.
थिमैया (जो बाद में जनरल बने) के अधीन कार्य किया।
- 1947-48 भारत-पाक युद्ध: स्वतंत्रता के तुरंत
बाद, 22 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला कर दिया। पाकिस्तानी कबाइली और सैनिक
घुसपैठियों ने श्रीनगर हवाई अड्डे पर कब्जा करने की योजना बनाई, ताकि भारतीय सेना को वहां पहुंचने से रोका जा
सके। उस समय सोमनाथ शर्मा की बांह हॉकी खेलते समय टूट गई थी और उनके हाथ में
प्लास्टर चढ़ा हुआ था। डॉक्टरों ने उन्हें आराम करने की सलाह दी थी, लेकिन देशभक्ति की भावना से प्रेरित होकर
उन्होंने श्रीनगर जाने की जिद की। 31 अक्टूबर
1947 को वे श्रीनगर पहुंचे और उनकी कंपनी
को बडगाम में पेट्रोलिंग का जिम्मा सौंपा गया।
बडगाम की लड़ाई और बलिदान
- 3 नवंबर 1947 की घटना: 3 नवंबर 1947 को बडगाम में सोमनाथ शर्मा की कंपनी पर लगभग 700 पाकिस्तानी घुसपैठियों ने हमला किया। उनकी कंपनी
में केवल 50 सैनिक थे, और वे तीन तरफ से घिर गए थे। दुश्मन के पास भारी हथियार, जैसे मोर्टार और मशीनगन, थे। सोमनाथ ने अपने सैनिकों का हौसला बढ़ाया और खुले मैदान में भारी
गोलाबारी के बीच जवानों को प्रेरित करते रहे। उनके हाथ में प्लास्टर होने के
बावजूद वे मैगजीन में गोलियां भरकर सैनिकों को देते रहे और कपड़े की पट्टियों की
मदद से हवाई जहाज को सही लक्ष्य तक पहुंचाने में सहायता की।
- आखिरी संदेश: लड़ाई के दौरान
उन्होंने वायरलेस पर अपना अंतिम संदेश भेजा: "दुश्मन हमसे केवल 50 गज दूर है, हम संख्या में बहुत कम हैं और भारी गोलाबारी में फंसे हैं। मैं एक इंच
भी पीछे नहीं हटूंगा और अंतिम आदमी, अंतिम
गोली तक लड़ता रहूंगा।" कुछ ही देर बाद एक मोर्टार का गोला उनके पास रखे
विस्फोटकों में गिरा, और विस्फोट में वे शहीद हो गए। उनकी
कंपनी ने 200 से अधिक घुसपैठियों को मार गिराया और
श्रीनगर हवाई अड्डे को बचाने में सफलता हासिल की, जिससे भारतीय सेना को कश्मीर में अपनी स्थिति मजबूत करने का मौका
मिला।
सम्मान और पुरस्कार
- परमवीर चक्र: सोमनाथ शर्मा को उनकी
वीरता और बलिदान के लिए 1950 में
मरणोपरांत भारत का सर्वोच्च सैन्य सम्मान "परमवीर चक्र" प्रदान किया
गया। वे इस सम्मान को प्राप्त करने वाले पहले सैनिक थे। उनकी शहादत ने कश्मीर को
बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- अन्य सम्मान: उनकी स्मृति में
रानीखेत में कुमाऊं रेजिमेंट केंद्र में एक सैन्य मैदान का नाम "सोमनाथ
मैदान" रखा गया है। वहां एक संग्रहालय में उनके युद्ध के समय की वस्तुएं और
यादें संरक्षित हैं। 1980 में
भारतीय नौवहन निगम ने उनके सम्मान में एक तेल वाहक जहाज का नाम "एमटी मेजर
सोमनाथ शर्मा, पीवीसी" रखा, जो 25 साल की
सेवा के बाद बेड़े से हटा लिया गया।
व्यक्तिगत जीवन और मूल्य
- प्रभाव और प्रेरणा: सोमनाथ शर्मा
अपने पिता और मामा से गहरे प्रभावित थे। दोस्तों के बीच वे "सोम" के नाम
से लोकप्रिय थे। वे बचपन से ही सेना में शामिल होने के इच्छुक थे और भगवद गीता की
शिक्षाओं को अपने जीवन का आधार मानते थे। उनकी रग-रग में देशभक्ति बसी थी, और वे कर्तव्यनिष्ठा और साहस के प्रतीक थे।
- सादगी और समर्पण: सोमनाथ एक साधारण
और अनुशासित जीवन जीते थे। उनकी शहादत के समय उनकी उम्र मात्र 24 वर्ष थी, लेकिन
उन्होंने अपने छोटे से जीवन में जो पराक्रम दिखाया, वह आज भी प्रेरणा का स्रोत है।
सांस्कृतिक प्रभाव और विरासत
- प्रेरणा का स्रोत: सोमनाथ शर्मा की
वीरता की कहानी भारतीय सेना और देशवासियों के लिए एक मिसाल है। उनकी कहानी साहस,
बलिदान, और
कर्तव्यनिष्ठा का प्रतीक है। उनकी पुण्यतिथि और जयंती पर उन्हें याद किया जाता है,
और उनके अंतिम शब्द "मैं एक इंच भी पीछे
नहीं हटूंगा" आज भी सैनिकों को प्रेरित करते हैं।
- उत्तराखंड और हिमाचल से संबंध:
सोमनाथ शर्मा को हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड दोनों क्षेत्रों में गर्व के साथ याद
किया जाता है। कुमाऊं रेजिमेंट के साथ उनका जुड़ाव उत्तराखंड की सैन्य परंपरा को
और मजबूत करता है।
- राष्ट्रीय चेतना: उनकी शहादत ने
स्वतंत्रता के तुरंत बाद भारत की एकता और संप्रभुता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण
योगदान दिया। श्रीनगर हवाई अड्डे को बचाने में उनकी भूमिका ने कश्मीर को भारत का
अभिन्न अंग बनाए रखने में मदद की।
चुनौतियां और बलिदान
- स्वास्थ्य चुनौती: बडगाम की लड़ाई के
समय सोमनाथ का हाथ फ्रैक्चर था, और
डॉक्टरों ने उन्हें आराम करने की सलाह दी थी। फिर भी, उन्होंने देश के प्रति अपने कर्तव्य को प्राथमिकता दी और युद्ध में
भाग लिया।
- संख्यात्मक असमानता: उनकी कंपनी में
केवल 50 सैनिक थे, जबकि दुश्मन की संख्या 700 से
अधिक थी। इस असमानता के बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी और दुश्मन को रोककर रखा।
सारांश
मेजर सोमनाथ शर्मा (1923-1947) भारतीय सेना के पहले परमवीर चक्र विजेता थे। 31 जनवरी 1923 को हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा में जन्मे सोमनाथ ने 22 फरवरी 1942 को कुमाऊं रेजिमेंट में कमीशन प्राप्त किया। द्वितीय विश्व युद्ध में बर्मा में उनकी वीरता को "मेन्शंड इन डिस्पैचेस" से सम्मानित किया गया। 3 नवंबर 1947 को बडगाम में 700 पाकिस्तानी घुसपैठियों से लड़ते हुए उन्होंने श्रीनगर हवाई अड्डे को बचाया और शहीद हो गए। उनके बलिदान के लिए उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। उनकी स्मृति में रानीखेत में सोमनाथ मैदान और एक संग्रहालय स्थापित है। उनकी वीरता आज भी देशवासियों को प्रेरित करती है।
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