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शिवप्रसाद डबराल (12 नवंबर 1912 - 24 नवंबर 1999)|Shivprasad Dabral (12 November 1912 – 24 November 1999) |
शिवप्रसाद डबराल (12 नवंबर 1912 - 24 नवंबर 1999), जिन्हें
उनके उपनाम "चारण" से भी जाना जाता है, 20वीं शताब्दी के एक प्रमुख भारतीय इतिहासकार, भूगोलवेत्ता, अकादमिक,
और लेखक थे। उन्हें "उत्तराखंड का
विश्वकोश" कहा जाता है, क्योंकि
उन्होंने उत्तराखंड के इतिहास, संस्कृति,
और भूगोल पर व्यापक और गहन कार्य किया। नीचे उनके
जीवन, शिक्षा, कार्य, और योगदान की संपूर्ण जानकारी दी गई
है:
जीवन और प्रारंभिक पृष्ठभूमि
- जन्म और परिवार: शिवप्रसाद डबराल का
जन्म 12 नवंबर 1912 को उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले के गहली गांव में हुआ था। उनके
पिता कृष्णदत्त डबराल एक प्राइमरी स्कूल में प्रधानाध्यापक थे, और उनकी माता भानुमती डबराल एक गृहिणी थीं। डबराल
का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ, और
उनकी प्रारंभिक जिंदगी गढ़वाल के ग्रामीण परिवेश में बीती।
- शिक्षा:
- डबराल ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा
मांडई और गढ़सिर के प्राइमरी स्कूलों से प्राप्त की। मिडिल स्कूल की पढ़ाई
उन्होंने वर्नाक्युलर एंग्लो मिडिल स्कूल, सिलोगी
(गुमखाल) से पूरी की।
- उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने मेरठ से
बीए और इलाहाबाद से बीएड की डिग्री हासिल की। इसके बाद उन्होंने आगरा
विश्वविद्यालय से भूगोल में एमए किया।
- 1962 में
उन्होंने पीएचडी पूरी की, जिसके
बाद वे डॉ. शिवप्रसाद डबराल के नाम से जाने गए।
वैवाहिक जीवन
- 1935 में डबराल का विवाह विश्वेश्वरी देवी
से हुआ। उनके पारिवारिक जीवन के बारे में ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन यह ज्ञात है कि वे एक सादा और अनुशासित
जीवन जीते थे।
कैरियर और अकादमिक योगदान
- अध्यापन: डबराल ने अपने करियर की
शुरुआत अध्यापन से की। उन्होंने कुछ समय तक हिमाचल प्रदेश में शिक्षक के रूप में
कार्य किया, लेकिन देश के विभाजन के बाद वे
उत्तराखंड लौट आए। 1948 में उन्होंने डी.ए.बी. कॉलेज,
दुगड्डा (पौड़ी गढ़वाल) में प्रधानाचार्य के रूप
में कार्य शुरू किया और 1975 तक इस
पद पर रहे। उनकी कर्मस्थली मुख्य रूप से दुगड्डा रही।
- लेखन और शोध: डबराल ने अपनी लेखन
यात्रा 1931 से शुरू की। वे हिंदी और गढ़वाली
दोनों भाषाओं में लिखते थे और उनकी रचनाओं में इतिहास, भूगोल, नाटक, और कविता शामिल हैं।
साहित्यिक और ऐतिहासिक योगदान
- उत्तराखंड का इतिहास: डबराल का सबसे
महत्वपूर्ण कार्य "उत्तराखंड का इतिहास" है, जो 18 खंडों में प्रकाशित हुआ। इस ग्रंथ को
उत्तराखंड के इतिहास पर सबसे व्यापक और प्रामाणिक स्रोत माना जाता है। इसकी प्रमुख
विशेषताएं:
- 1965 में
पहला खंड "साक्ष्य संकलन" प्रकाशित हुआ।
- 1968 में
दूसरा खंड प्रकाशित हुआ, जिसमें
प्रारंभ से पांचवीं शताब्दी ईसा पूर्व तक की अवधि शामिल थी।
- 1969 में
तीसरा खंड प्रकाशित हुआ, जिसमें
कलचुरियों के अंत तक का इतिहास वर्णित है।
- 1971 में
चौथा खंड प्रकाशित हुआ, जिसमें 13वीं शताब्दी से गोरखा आक्रमण तक गढ़वाल का इतिहास शामिल है।
- इस ग्रंथ में उत्तराखंड की प्राचीन
सभ्यताओं, राजवंशों (जैसे कत्यूरी और चंद),
और सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों का विस्तृत वर्णन
है।
- कुमाऊं का इतिहास: डबराल ने
"कुमाऊं का इतिहास" नामक एक और महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखा। इस किताब को
प्रकाशित करने में उन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उन्होंने अपनी जमीन और
प्रेस बेचकर इस कार्य को पूरा किया। इस किताब की भूमिका में उन्होंने लिखा कि छह
वर्षों तक सूरदास (अंधेपन) की स्थिति में रहने के कारण लेखन रुक गया था, और प्रकाशन के खर्चों में वृद्धि के कारण
पांडुलिपि को आधा करना पड़ा।
- गढ़वाली साहित्य का संरक्षण: डबराल
ने गढ़वाली भाषा के 24 दुर्लभ काव्यों को संरक्षित किया और
उन्हें अपनी प्रेस से प्रकाशित किया। उन्होंने मोलाराम की एक दुर्लभ काव्य
पांडुलिपि को भी पुनः प्रकाशित कर संरक्षित किया।
- अन्य रचनाएं:
- 2 काव्य संग्रह।
- 11 नाटक।
- एक दर्जन से अधिक बालोपयोगी
पुस्तकें।
- उत्तराखंड की पुरातत्व और
पारिस्थितिकी पर कई किताबें।
- लेखन शैली: डबराल की लेखन शैली में
हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं पर समान अधिकार था। वे ज्योतिष और ग्रह स्थिति
विश्लेषण में भी सिद्धहस्त थे।
व्यक्तित्व और जीवनशैली
- सादगी और एकांतप्रियता: डबराल एक
साधारण और एकांतप्रिय व्यक्ति थे। उनकी सादगी और समर्पण ने उन्हें एक विशिष्ट
व्यक्तित्व बनाया। हालांकि, उनकी
एकांतप्रियता और कुछ आदतों के कारण वे सामाजिक रूप से थोड़े अलग-थलग रहे।
- आर्थिक कठिनाइयां: डबराल ने अपने शोध
और लेखन के लिए भारी आर्थिक कठिनाइयों का सामना किया। उनकी पेंशन मात्र 270
रुपये थी, लेकिन उन्होंने अपने कार्य को पूरा करने के लिए अपनी जमीन और प्रेस
बेच दी। उनकी किताबों के प्रकाशन में घाटा होने के बावजूद उन्होंने अपने शोध को
कभी नहीं रोका।
- स्वास्थ्य समस्याएं: डबराल को अपने
जीवन में स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ा। छह वर्षों तक वे अंधेपन से
पीड़ित रहे, जिसके कारण उनका लेखन कार्य रुक गया
था। बाद में ऑपरेशन से उनकी दृष्टि वापस आई।
सांस्कृतिक और सामाजिक प्रभाव
- उत्तराखंड का विश्वकोश: डबराल को
"उत्तराखंड का विश्वकोश" कहा जाता है, क्योंकि उनके कार्य ने उत्तराखंड के इतिहास, संस्कृति, और भूगोल को एक व्यवस्थित और
प्रामाणिक रूप दिया। उनके ग्रंथ आज भी शोधकर्ताओं और इतिहासकारों के लिए संदर्भ के
रूप में उपयोग किए जाते हैं।
- गढ़वाली भाषा और साहित्य: डबराल ने
गढ़वाली भाषा और साहित्य को संरक्षित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनके
द्वारा पुनः प्रकाशित दुर्लभ काव्य आज भी साहित्य प्रेमियों के लिए उपलब्ध हैं।
- शैक्षिक योगदान: डी.ए.बी. कॉलेज,
दुगड्डा में उनके लंबे समय तक प्रधानाचार्य रहने
के दौरान उन्होंने कई छात्रों को शिक्षित और प्रेरित किया।
निधन
- शिवप्रसाद डबराल का निधन 24 नवंबर 1999 को हुआ। उनकी मृत्यु के समय उनकी आयु 87 वर्ष थी। उनके निधन से उत्तराखंड के साहित्यिक और ऐतिहासिक क्षेत्र
में एक बड़ा शून्य उत्पन्न हुआ।
विरासत
- डबराल की रचनाएं, विशेष रूप से "उत्तराखंड का इतिहास" और
"कुमाऊं का इतिहास", उत्तराखंड
के इतिहास को समझने के लिए एक अमूल्य स्रोत हैं। उनके कार्य ने उत्तराखंड की
सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पहचान को मजबूत किया।
- उनके द्वारा संरक्षित गढ़वाली
साहित्य ने इस भाषा को विलुप्त होने से बचाया और इसे नई पीढ़ियों तक पहुंचाया।
- डबराल का जीवन और समर्पण उत्तराखंड
के लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत है। उनकी सादगी, लगन, और त्याग की भावना आज भी लोगों को
प्रभावित करती है।
चुनौतियां और आलोचनाएं
- आर्थिक तंगी: डबराल को अपने शोध और
प्रकाशन के लिए भारी आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। कागज और छपाई के बढ़ते
खर्चों ने उनके कार्य को प्रभावित किया।
- सामाजिक अलगाव: उनकी एकांतप्रियता और
कुछ आदतों के कारण वे सामाजिक रूप से थोड़े अलग-थलग रहे, जिसके कारण उनके समकालीन लोगों से उनका संपर्क सीमित रहा।
- स्वास्थ्य समस्याएं: अंधेपन और अन्य
स्वास्थ्य समस्याओं ने उनके लेखन को प्रभावित किया, लेकिन उनकी दृढ़ता ने उन्हें इन कठिनाइयों से पार पाने में मदद की।
सारांश
शिवप्रसाद डबराल (1912-1999) उत्तराखंड के एक महान इतिहासकार, भूगोलवेत्ता, और लेखक थे, जिन्हें
"उत्तराखंड का विश्वकोश" कहा जाता है। उनका जन्म पौड़ी गढ़वाल के गहली
गांव में हुआ था, और उन्होंने मेरठ, इलाहाबाद, और आगरा से शिक्षा प्राप्त की। 1931 से लेखन शुरू करने वाले डबराल ने "उत्तराखंड का इतिहास" (18
खंड), "कुमाऊं का इतिहास", 2 काव्य
संग्रह, 11 नाटक, और गढ़वाली भाषा के 24 दुर्लभ
काव्यों को प्रकाशित किया। उन्होंने डी.ए.बी. कॉलेज, दुगड्डा में 1948 से 1975
तक प्रधानाचार्य के रूप में कार्य किया। अपनी
जमीन और प्रेस बेचकर भी उन्होंने अपने शोध को पूरा किया। उनका निधन 24 नवंबर 1999 को हुआ। उनकी विरासत उत्तराखंड के इतिहास और साहित्य में आज भी जीवित
है।
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