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बद्री दत्त पांडेय (15 फरवरी 1882 - 13 जनवरी 1965),उत्तराखंड के महान व्यक्तित्व|Badri Dutt Pandey (15 February 1882 – 13 January 1965), a great personality of Uttarakhand. |
बद्री दत्त पांडेय (15 फरवरी 1882 - 13 जनवरी 1965) उत्तराखंड
के एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी, इतिहासकार,
सामाजिक सुधारक, पत्रकार और स्वतंत्र भारत में अल्मोड़ा से सांसद थे। उन्हें
"कुमाऊं केसरी" के नाम से जाना जाता है, यह उपाधि उन्हें 1921 के
कुली-बेगार आंदोलन की सफलता के बाद मिली। उन्होंने कुमाऊं क्षेत्र में सामाजिक
सुधारों और स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान दिया। नीचे उनके जीवन और
कार्यों की विस्तृत जानकारी दी गई है:
जीवन और प्रारंभिक पृष्ठभूमि
- जन्म और परिवार: बद्री दत्त पांडेय
का जन्म 15 फरवरी 1882 को हरिद्वार के कनखल क्षेत्र में हुआ था। उनके पिता विनायक दत्त
पांडेय एक वैद्य (पारंपरिक चिकित्सक) थे और माता का नाम उपलब्ध स्रोतों में नहीं
मिलता। सात वर्ष की आयु में उनके माता-पिता का निधन हो गया, जिसके बाद उनके बड़े भाई हरिदत्त पांडेय ने उनका पालन-पोषण किया। 1896
में वे अपने परिवार के साथ अल्मोड़ा आ गए।
- शिक्षा: बद्री दत्त ने अपनी शिक्षा
अल्मोड़ा में पूरी की। उनकी प्रारंभिक शिक्षा के बारे में विस्तृत जानकारी नहीं है,
लेकिन उन्होंने अपनी बुद्धिमता और लगन से स्वयं
को शिक्षित किया। उनकी रुचि इतिहास, साहित्य
और सामाजिक मुद्दों में थी, जो बाद
में उनके कार्यों में स्पष्ट रूप से दिखाई दी।
कैरियर और पत्रकारिता
- प्रारंभिक कैरियर: 1903 में बद्री दत्त ने नैनीताल में एक स्कूल में
शिक्षक के रूप में काम शुरू किया। कुछ समय बाद उन्हें देहरादून में सरकारी नौकरी
मिली, लेकिन उन्होंने इसे छोड़कर
पत्रकारिता को चुना, क्योंकि वे सामाजिक और राष्ट्रीय
मुद्दों को जनता तक पहुंचाना चाहते थे।
- पत्रकारिता में योगदान:
- 1908 में वे
इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाले अंग्रेजी दैनिक "लीडर" में सहायक
व्यवस्थापक और सहायक संपादक बने। 1910 में वे
देहरादून चले गए और वहां "कॉस्मोपोलिटन" अखबार के संपादक के रूप में 1913
तक कार्य किया।
- 1913 में वे
अल्मोड़ा लौटे और "अल्मोड़ा अखबार" के संपादक बने। इस अखबार को उन्होंने
राष्ट्रीय स्वर दिया और इसकी ग्राहक संख्या 50 से बढ़कर 500 तक
पहुंच गई। इस अखबार के माध्यम से उन्होंने ब्रिटिश शासन की नीतियों और सामाजिक
कुरीतियों के खिलाफ लेख प्रकाशित किए। ब्रिटिश सरकार ने इसके चलते अखबार पर
प्रतिबंध लगा दिया और 1000 रुपये
की जमानत मांगी, जिसके बाद इसे बंद करना पड़ा।
- 15 अक्टूबर
1918 को, विजयदशमी के दिन, बद्री
दत्त ने हरिकृष्ण पंत, मोहन सिंह मेहता, हरगोविंद पंत और गुरुदास साह के सहयोग से
"देशभक्त प्रेस" की स्थापना की और "शक्ति" नामक एक साप्ताहिक
अखबार शुरू किया। इस अखबार ने स्वतंत्रता संग्राम को गति दी और आज भी यह प्रकाशित
होता है।
स्वतंत्रता संग्राम में योगदान
- कुली-बेगार आंदोलन (1921): बद्री दत्त पांडेय का सबसे महत्वपूर्ण योगदान 1921
का कुली-बेगार आंदोलन था। उस समय कुमाऊं में
कुली-बेगार प्रथा प्रचलित थी, जिसमें
स्थानीय लोगों को ब्रिटिश अधिकारियों के लिए बिना मजदूरी के सामान ढोना पड़ता था।
इस प्रथा के खिलाफ बद्री दत्त ने बागेश्वर में सरयू और गोमती नदियों के संगम पर 14
जनवरी 1921 को उत्तरायणी मेले के दौरान एक विशाल आंदोलन का नेतृत्व किया।
- इस आंदोलन में 40,000 से अधिक लोग शामिल हुए। उन्होंने बागनाथ मंदिर
में प्रार्थना की और फिर "कुली-बेगार खत्म करो" लिखे झंडे के साथ सरयू
बागड़ तक मार्च किया। बद्री दत्त ने सरयू नदी का पवित्र जल लेकर और बागनाथ मंदिर
को साक्षी मानकर शपथ ली कि वे कुली-बेगार प्रथा को बर्दाश्त नहीं करेंगे। गांव के
मुखियाओं ने कुली रजिस्टर नदी में फेंक दिए। इस आंदोलन की सफलता के बाद उन्हें
"कुमाऊं केसरी" की उपाधि दी गई।
- स्वतंत्रता संग्राम में सक्रियता:
- बद्री दत्त ने कई राष्ट्रीय आंदोलनों
में भाग लिया और इसके लिए उन्हें बार-बार जेल जाना पड़ा:
- 1921 में 1
साल की सजा।
- 1930 में
नमक सत्याग्रह के दौरान 18 महीने
की सजा।
- 1932 में
सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान 1 साल की
सजा।
- 1941 में 3
महीने की सजा।
- 1942 में
भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जेल गए।
- कुमाऊं परिषद: बद्री दत्त कुमाऊं
परिषद के संस्थापक सदस्यों में से एक थे, जिसकी
स्थापना 1915 में हरगोविंद पंत ने की थी। इस संगठन
ने कुली-बेगार प्रथा के खिलाफ आंदोलन को संगठित किया और कुमाऊं में राष्ट्रीय
चेतना जगाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
सामाजिक सुधार
- नायक प्रथा के खिलाफ संघर्ष: उस समय
कुमाऊं में नायक प्रथा प्रचलित थी, जिसमें
नायक परिवार अपनी बेटियों को वेश्यावृत्ति में बेचने के लिए मजबूर थे। बद्री दत्त
ने इस अमानवीय प्रथा के खिलाफ जोरदार अभियान चलाया। उनके प्रयासों के परिणामस्वरूप
इस प्रथा को समाप्त करने के लिए कानून बनाया गया।
- सामाजिक जागरूकता: बद्री दत्त ने
अपने अखबारों और लेखों के माध्यम से कुमाऊं क्षेत्र में सामाजिक जागरूकता फैलाई।
उन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक समानता के
मुद्दों पर जोर दिया।
राजनीतिक जीवन
- सांसद के रूप में कार्य: 1957
में हरगोविंद पंत के निधन के बाद अल्मोड़ा लोकसभा
सीट पर हुए उपचुनाव में बद्री दत्त पांडेय को कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार बनाया।
वे इस चुनाव में विजयी हुए और 1957 से 1962
तक अल्मोड़ा से सांसद रहे। संसद में उन्होंने
कुमाऊं क्षेत्र की समस्याओं, जैसे
सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी,
को जोरदार तरीके से उठाया।
- स्वतंत्रता सेनानी पेंशन का त्याग:
बद्री दत्त ने स्वतंत्रता सेनानियों को दी जाने वाली पेंशन और अन्य सुविधाओं को
स्वीकार नहीं किया। 1962 के
भारत-चीन युद्ध के दौरान उन्होंने अपने सभी पदक और पुरस्कार सरकार को समर्पित कर
दिए, जिससे उनकी देशभक्ति और त्याग की
भावना का परिचय मिलता है।
साहित्यिक योगदान
- कुमाऊं का इतिहास: बद्री दत्त पांडेय
ने कुमाऊं क्षेत्र के इतिहास पर एक महत्वपूर्ण किताब लिखी, जिसका नाम "कुमाऊं का इतिहास" है। यह किताब 1937 में पहली बार प्रकाशित हुई और इसे कुमाऊं के
इतिहास पर सबसे प्रामाणिक और व्यापक ग्रंथ माना जाता है। इस किताब में कुमाऊं की
भौगोलिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक जानकारी
विस्तार से दी गई है, जिसमें कत्यूरी राजवंश और कुमाऊं की
जनजातियों का इतिहास भी शामिल है। यह किताब आज भी शोधकर्ताओं और इतिहास प्रेमियों
के लिए एक महत्वपूर्ण स्रोत है।
व्यक्तिगत जीवन और मूल्य
- परिवार: बद्री दत्त की पत्नी का नाम
अन्नपूर्णा देवी था। अन्नपूर्णा ने उनके संघर्षों में उनका पूरा साथ दिया और
आर्थिक व मानसिक कठिनाइयों का सामना करने में उनकी सहायता की। उनके बच्चों के बारे
में विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है।
- सादगी और स्वावलंबन: बद्री दत्त अपनी
वृद्धावस्था में भी स्वावलंबी रहे। उनकी स्मरण शक्ति बहुत तेज थी, और वे अपने जीवन के अंत तक सामाजिक कार्यों में
सक्रिय रहे। वे गांधीवादी सिद्धांतों से प्रभावित थे और सादगी, स्वदेशी और सामाजिक समानता में विश्वास रखते थे।
निधन
- बद्री दत्त पांडेय का निधन 13
जनवरी 1965 को हुआ। उनके निधन से कुमाऊं क्षेत्र और स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े
लोगों को गहरा आघात लगा। उनकी मृत्यु के बाद उनके योगदान को याद करते हुए
उत्तराखंड में कई संस्थानों का नामकरण उनके नाम पर किया गया।
सांस्कृतिक प्रभाव और विरासत
- कुमाऊं केसरी की उपाधि: 1921 के कुली-बेगार आंदोलन की सफलता के बाद उन्हें
"कुमाऊं केसरी" (कभी-कभी "कूर्मांचल केसरी" भी कहा जाता है)
की उपाधि दी गई, जो उनके साहस और नेतृत्व का प्रतीक
है।
- सामाजिक और राजनीतिक योगदान: बद्री
दत्त ने कुमाऊं में सामाजिक सुधार और स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी। उनकी
पत्रकारिता ने लोगों में राष्ट्रीय चेतना जगाई, और नायक प्रथा जैसी कुरीतियों को खत्म करने में उनके प्रयास ऐतिहासिक
हैं।
- साहित्यिक विरासत: उनकी किताब
"कुमाऊं का इतिहास" कुमाऊं क्षेत्र के इतिहास को समझने के लिए एक अमूल्य
स्रोत है। यह किताब आज भी शोधकर्ताओं और इतिहासकारों के लिए प्रासंगिक है।
- स्मृति में सम्मान: उनके नाम पर
उत्तराखंड में कई संस्थानों का नामकरण किया गया है। 1974 में अगस्त्यमुनि (रुद्रप्रयाग) में अनुसूया प्रसाद बहुगुणा राजकीय
स्नातकोत्तर महाविद्यालय की स्थापना उनकी स्मृति में की गई।
चुनौतियां और आलोचनाएं
- ब्रिटिश दमन: बद्री दत्त को अपने
अखबारों और आंदोलनों के कारण ब्रिटिश शासन से लगातार दमन का सामना करना पड़ा। उनके
अखबार "अल्मोड़ा अखबार" पर प्रतिबंध और बार-बार जेल यात्रा ने उनके
स्वास्थ्य पर असर डाला।
- सीमित संसाधन: उस समय कुमाऊं क्षेत्र
में संसाधनों की कमी थी, जिसके
कारण उनके आंदोलनों को संगठित करना चुनौतीपूर्ण था। फिर भी, उन्होंने स्थानीय लोगों को एकजुट कर बड़े बदलाव लाए।
- स्वास्थ्य समस्याएं: बार-बार जेल
जाने और कठिन परिश्रम के कारण उनके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ा। हालांकि,
कुछ स्रोतों में उनकी मृत्यु की तारीख 23 मार्च 1943 बताई गई है, जो गलत
प्रतीत होती है, क्योंकि वे 1957 में सांसद चुने गए थे। सही तारीख 13 जनवरी 1965 है।
सारांश
बद्री दत्त पांडेय (1882-1965)
उत्तराखंड के एक महान स्वतंत्रता सेनानी, इतिहासकार, और सामाजिक सुधारक थे। 15 फरवरी 1882
को हरिद्वार के कनखल में जन्मे पांडेय ने 1921
के कुली-बेगार आंदोलन का नेतृत्व किया, जिसके लिए उन्हें "कुमाऊं केसरी" की
उपाधि मिली। उन्होंने "अल्मोड़ा अखबार" और "शक्ति" अखबार के
माध्यम से स्वतंत्रता संग्राम को गति दी और नायक प्रथा जैसी कुरीतियों को समाप्त
करने में योगदान दिया। उनकी किताब "कुमाऊं का इतिहास" कुमाऊं के इतिहास
पर एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। 1957 में वे
अल्मोड़ा से सांसद बने। उनका निधन 13 जनवरी 1965
को हुआ। उनकी विरासत आज भी कुमाऊं क्षेत्र में
प्रेरणा का स्रोत है।
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